"गीतांजली" के लिये नोबेल पुरस्कार पाने श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का नारी के प्रति दृष्टिकोण किसी भी आम आदमी से अलग नही था। ये बात उनकी रचनाओं मे स्पष्टरूप से साबित होता है। उनके लिये नारी ..
सिर्फ विधाता की सृष्टि नही हो तुम नारी,
पुरुषों ने बनाया है तुम्हे सौन्दर्य संचारी।
[ शुधु बिधातार सृष्टि नोहो तुमी नारी,
पुरुष गोरेछे तोरे सौन्दर्यो सोंचारी। ]
और आदर्श नारी ..
आंगन में जो खड़ी रहे इंतजार में,
पहनकर ढाकाई साड़ी, मांग में सिंदुर ..
[ आंगिनाते जे आछे ओपेक्खा कोरे,
तार पोरोने ढाकाई साड़ी, कोपाले सिंदुर .. ]
स्रोतः आनन्द बाजार पत्रिका, रविबासरीय, ७ .५.०६
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5 comments:
पंकज शायद तुम्हारा इरादा लोगों को उत्तेजित करके बहस प्रारम्भ करना है ? कविता की दो पंकित्तयाँ अलग से देखने पर तो कुछ भी साबित किया जा सकता है. मैं यह नहीं जानता कि रविंद्रनाथ ठाकुर के लिए आदर्श स्त्री वही थी या नहीं जो पति का सिदूर लगा कर इंतज़ार करे, पर बात को अधिक उदाहरण दे कर बताओ तो अच्छा होगा. आज से सौ साल पहले के सोचने का तरीका आज का तो नहीं हो सकता और हो सकता है कि रविंद्रनाथ ठाकुर के विचारों मे कुछ बातें ऐसीं मिलें जिन्हें आज के मापदँड से पिछड़ा माना जाये, पर चारुलता जैसा चरित्र बनाना वाला इतना भी अप्रगतिवादी नहीं हो सकता.
सुनील
मैं सुनील जी से पूरी तरह सहमत हूँ। रवीन्द्रनाथ की कथाओं, कविताओं और उनकी अन्य रचनाओं को पूरी तरह जाने बिना, पढ़े बिना, ठीक तरीके से शोध किये बिना, ऐसा पोस्ट करना उचित नहीं है। स्त्री पर लिखे उनके कई उपन्यास, कहानियाँ स्त्री के विभिन्न रूपों को दिखाती हैं, असम्मान कहाँ दिखता है?
पंकज भाई
रविन्द्र साहित्य को थोडा गहराई से अध्यन करने की आवश्यकता पर बल देना चाहूँगा.
समीर लाल
रवीन्द्रनाथ जी के बारे में मै उतना ही जानता हुँ, जितना एक आम आदमी जानता है, और उनके प्रति श्रद्धा भी उतनी ही है। रवीन्द्रनाथ जी के उपर किसी भी तरह की टिप्पनी करने की योग्यता मुझमें नही है। यह पुरा लेख कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली बंगला दैनिक से "आनन्द बाजार पत्रिका" के 07-05-2006 के "रविवासरीय" अंक से उद्धृत है। मेरा उद्देश्य सिर्फ यह बात आपलोगो के साथ "शेयर" करना और इस विषय पर आपकी राय जानना है।
ठाकुर दा ने केवल उस समय प्रचलित नारी की छवि का चित्रण किया है ।
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