Thursday, April 27, 2006

बस का किराया

मुझे अक्सर अपने काम से इधर उधर जाना पड़ता है। ये "इधर उधर" 5 से 90 KM के बीच ही होता है। और मेरे यहाँ यातायात का एकमात्र साधन है बस ।
आज घर से निकलने में काफी लेट हो गया था। चालीस मिनट बस स्टॉप पर इंतजार करने के बाद बस मिल ही गयी और बैठने के लिये जगह भी। बस मे मेरे ठीक सामने वाले सीट पर एक साठ - सत्तर साल की बुढी औरत बैठी थी। बेचारी जहाँ जा रही थी (मैं भी वहीं जा रहा था ), वहाँ तक का किराया अठारह रुपये हैं। लेकिन उसके पास सिर्फ नौ रुपये ही थे। लेकिन बस का कंडक्टर उसे आधे भाड़े मे ले जाने को तैयार नही था। वो औरत, कंडक्टर को बाबूजी... बाबूजी.. कहकर गिरगिरा रही थी, लेकिन कंडक्टर के उपर इसका कोई असर नही पड़ा, उसका कहना था "तुमलोगों का तो ये रोज रोज का बहाना है, कभी कहेंगे पैसे नही है तो कभी पैसे भूल गया। तुल लोगो के पास हजार बहाने होते हैं।" वो ठीक ही कह रहा था। जो लोग नियमित रुप से बस से यात्रा करते हैं, वो इसे अच्छी तरह से जानते हैं। कंडक्टर ने गाड़ी रुकवाया और औरत को बीच रास्ते मे ही उतरने कि लि कहने लगा। भला हो उन कालेज छात्रों का, जिनके धमकाने के बाद कंडक्टर ने उस औरत को उतारने की हिम्मत नही दिखाया और बिना किराये के उसे ले जाने को तैयार हो गया।

इसके बाद कंडक्टर किराया लेने मेरे पास लेने आया। मैने पैसे निकालने के लिये जेब मे हाथ डाला। मेरे मुँह से निकल पड़ा .. हे भगवान ! नही, किसी ने मेरा जेब नही काटा था। घर से जल्दीबाजी में निकलने के चक्कर में तो मैं सारा पैसा घर पर ही छोड़ आया। अब क्या करुँ । मैं जानता था कि कंडक्टर विश्वास नही करेगा। मै उसको मौका नही देना चाहता था। मैने खड़ा होकर पुरे बस में एक नजर घुमाया कि कोई परिचित व्यक्ति मुझे मिलजाय। मेरा दुर्भाग्य, कोई नही मिला। इसी बीच कंडक्टर बोल पराः "साहब जल्दी किजीये।" मेरे हावभाव से शायद उसको मेरे हालत का पता चल गया था। इससे पहले कि वो कुछ बोले, मैने अपनी घड़ी उतारी और कहा ये लो इसे रखो, आज किसी कारन मेरे पास पैसे नही है, कल, पडसों या जिसदिन भी अगली बार तुमसे मुलाकात होगी मै तुम्हारा पैसा तुम्हे लौटा दुंगा, तुम मेरा घड़ी मुझे लौटा देना।" मेरे पास कोई और दुसरा रास्ता नही था।
"क्या साहब, ऐसा होते रहता है, छोड़िये ना पैसे फिर कभी दे दिजीयेगा" कहते हुए, उसने मेरे हाथ में घड़ी वापस दे दिया और आगे बढ गया।